Saturday, January 27, 2018

ये जो तुम लिखते हो

ये जो तुम लिखते हो
किसके लिए लिखते हो
साहित्य के लिए
तभी शब्दों के मकड़जाल में उलझे से रहते हो
तुम्हारा साहित्य सिर्फ शब्दों की घमासान है,

तुम अनुभव नहीं, शब्द बांटते हो
तुम दुनियादारी नहीं, शब्द बांटते हो
तुम किस्से नहीं, शब्द बांटते हो
तुम समझदारी नहीं, शब्द बांटते हो
तुम भावनाएं नहीं, शब्द बांटते हो,


तुम्हारा पूरा साहित्य शब्दजाल की पपड़ी सा है
जब चटखेगा तब तुम नजर आओगे
तुम्हारा साहित्य शब्दों का क्रीम चढ़ा कर गोष्ठियों-संगोष्ठियों में टहलता रहता है
अपने जैसों की वाहवाही लूटता है,


न जाने भाषा की कौन सी स्फेयर पर चढ़कर लिखते हो
शब्दों की जमीन नहीं, इसलिए तुम्हारा साहित्य हवा में तैरता नजर आता है
तुम्हारा साहित्य चने की तरह है, बिन भिगोए गलता नहीं
और बिन भुनाए पकता नहीं,


अच्छा, अपने लिए लिखते हो
ऐसा बहुतों से सुना है
स्वार्थी हो फिर
और सामाजिक होने का ढोंग करते हो
जो साहित्य क्रंति लाता है वह सरल और सबका होता है।

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